Author Jagdish Gupt बचपन में काग़ज़ पर स्याही की बूंद डाल कोने को मोड़ कर छापा बनाया जैसा रूप रेखा के इधर बना, वैसा ही ठीक उधर आया। भोर के धुंधलके में ऎसी ही लगी मुझे छतरीदार नाव के साथ-साथ चलती हुई छाया । Rate this poem Select ratingGive it 1/5Give it 2/5Give it 3/5Give it 4/5Give it 5/5 No votes yet Rate Reviews Post review No reviews yet. Log in or register to post comments